हिन्दी उपन्यास का विकास

 हिन्दी उपन्यास का विकास 

(Hindi Upanyas)


हिन्दी उपन्यास के इतिहास का सामान्यतः तीन चरणों में विभाजन किया जाता है-

1. प्रेमचंद पूर्व उपन्यास

2. प्रेमचंदयुगीन उपन्यास

3. प्रेमचंदोत्तर उपन्यास।

प्रेमचंद पूर्व हिन्दी उपन्यास

1882 ई. से लगभग 1916 ई. तक के युग को हिन्दी उपन्यास में प्रेमचंद पूर्व युग के नाम से जाना जाता है। यह हिन्दी उपन्यास के विकास का आरंभिक काल है जहाँ मध्यकाल के आदर्शवाद तथा रोमानियत के तत्त्व धीरे-धीरे खत्म हो रहे थे और यथार्थवाद के तत्त्व बढ़ रहे थे। इस युग की वास्तविक भूमिका एक पृष्ठभूमि के रूप में है जिसने परिपक्व उपन्यास लेखन को आधार प्रदान किया।

इस समय तीन प्रकार के उपन्यास लिखे गए-

1. सुधारवादी उपन्यास

2. मनोरंजनपरक उपन्यास

3. ऐतिहासिक उपन्यास।

(1) सुधारवादी या नैतिक उपदेशात्मक उपन्यास:-

ये उपन्यास मूलतः धर्म सुधार तथा नवजागरण आंदोलन की प्रेरणा से लिखे गए हैं। इन्हें लिखने वालों में मुख्यतः भारतेन्दु मण्डल के कुछ लेखक व श्रद्धाराम फिल्लौरी जैसे तत्कालीन लेखक शामिल हैं। इन्होंने सांस्कृतिक, सामाजिक पतन व उससे बचाव के उपायों पर काफी लिखा। इसके अतिरिक्त, भारतीय नारी व हिन्दू जीवन शैली जैसे विषय इन उपन्यासों में प्रमुख रहे। इन रचनाओं में यथार्थवाद का तत्त्व कम है और आदर्श व उपदेश के तत्त्व हावी हैं। औपन्यासिक संरचना की दृष्टि से इनका महत्त्व बहुत अधिक नहीं है।

इसके कुछ उदाहरण हैं-

लाला श्रीनिवास दास – परीक्षा गुरु

श्रद्धाराम फिल्लौरी – भाग्यवती

राधाकृष्ण दास – निस्सहाय हिन्दू

बालकृष्ण भट्ट – सौ अजान एक सुजान

(2) मनोरंजनपरक उपन्यास –

इस काल में दूसरे प्रकार के उपन्यास मनोरंजनपरक है जिनमें दो प्रवृत्तियाँ दिखाई पङती हैं-

1. तिलस्मी-ऐयारी उपन्यास

2. जासूसी उपन्यास।

’तिलस्म’ शब्द यूनानी शब्द ’टेलेस्मा’ से बना है जिसका अर्थ है जादू या इन्द्रजाल। ’ऐयारी’ अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है जादुई किस्म का व्यक्तित्व। तिलस्मी-ऐयारी उपन्यास जादुई किस्म के कथानक पर आधारित होते थे जिनमें घटनाओं में कारण-कार्य की संगति नहीं दिखती थी। नायक मनुष्य होकर भी अतिप्राकृतिक शक्तियों से युक्त होता था और वह अलौकिक या अतिप्राकृतिक शत्रुओं से टकराता था।

ये उपन्यास बेहद रोमांचकारी व कल्पनाप्रधान होते थे किन्तु इनमें यथार्थ की छाया नजर नहीं आती थी। जासूसी उपन्यास का कथानक जादुई तो नहीं होता था किन्तु बेहद रहस्यपूर्ण व रोमांच से भरा होता था। किसी हत्या या अपराध की तहकीकात करते हुए जासूस नायक बहुत से खतरों से खेलकर सच को ढूंढ निकालता था।

इस प्रकार के कुछ उपन्यास इस प्रकार हैं-

देवकीनन्दन खत्री – चन्द्रकांता, चन्द्रकांता संतति

किशोरीलाल गोस्वामी – तिलस्मी महल

गोपालराम गहमरी – सरकटी लाश, जासूस पर जासूसी

(3) ऐतिहासिक उपन्यास –

इस युग में तीसरे प्रकार के उपन्यास ऐतिहासिक विषयवस्तु पर केन्द्रित थे। यहां इतिहास का प्रयोग मुख्यतः दो कारणों से हुआ। कुछ लेखकों ने नवजागरण की चेतना से युक्त होकर इतिहास के गौरवशाली प्रसंगों का प्रस्तुतीकरण किया। कुछ अन्य लेखकों ने इतिहास का प्रयोग सिर्फ नारी व पुरुष के रोमांस को दिखाने के लिए आवरण की तरह किया। इन उपन्यासों का इतिहास-बोध काफी अपरिपक्व है।

इनमें ऐतिहासिक तथ्यों की संरचना काफी ढीली-ढाली है। इनका महत्त्व सिर्फ इसलिए है कि ये उपन्यास के इतिहास के प्रारंभिक काल में रचे गए, न कि इसलिए कि ये विशेष गुणवत्ता धारणा करते हैं।

ऐसे कुछ उपन्यास इस प्रकार हैं-

किशोरीलाल गोस्वामी – तारा, रजिया बेगम, आदर्श रमणी

मिश्र बन्धु – वीरमणि

बाबू बृजनन्दन सहाय – लालचीन

उपन्यास और यथार्थवाद में सम्बंध

उपन्यास का मूल संबंध यथार्थवाद से माना गया है और इसी अर्थ में यह पारम्परिक आख्यायिकाओं से अलग है। यूरोप में 14 वीं शताब्दी के आसपास साहित्यिक रचनाओं के दो प्रसिद्ध वर्ग थे- ’रोमांस’ तथा ’नोवास’। रोमांस का संबंध उन रचनाओं से था जिनमें भावुकता, काल्पनिकता व रोमानियत भरी होती थी। इसका विषय सामान्यतः प्रेम या कोई रोमांचकारी घटना होती थी।

दूसरी ओर नोवास उन रचनाओं को कहा जाता था जो अपने समय की वास्तविकताओं का यथार्थपरक वर्णन करती थी। साहित्य का यही वर्गीकरण आधुनिक काल तक आगे बढ़ा और यही ’नोवास’ आगे चलकर ’नाॅवेल’ बन गया।

ऐसा नहीं है कि उपन्यास अपने जन्म के समय से ही शुद्धतः यथार्थवादी रहा है। कोई भी विधा जब जन्म लेती है तो उसे संक्रमण काल से गुजरना होता है और उस काल में पिछली अवस्था के लक्षण बचे रहते हैं। यही स्थिति उपन्यास के साथ रही है।

शुरूआती उपन्यास (पश्चिम में भी और भारत में भी) जासूसी और काल्पनिक किस्म के थे जिनमें रोमांच का तत्त्व केन्द्र में था। 1939 ई. में विश्व का पहला उपन्यास ’पामेला’ छपा, जिसके लेखक सैमुअल रिचर्डसन थे। रोमांच के चरक स्तर को छूने के कारण यह इतना अधिक बिका की आज तक कम ही पुस्तकें इसके कीर्तिमान को छू सकी है।

जन्म के कुछ ही समय बाद उपन्यास यथार्थवाद से संबंद्ध हो गया। 1850 के आसपास अंग्रेजी एवं रूसी साहित्य में ऐसे उपन्यास दिखाई देने लगे जो पूरी तरह यथार्थ को समेटते थे। इसका एक कारण मध्य वर्ग के विकास से संबंधित था। मध्य वर्ग के शिक्षित समाज को सिर्फ कल्पनाओं और रोमानियत से संतुष्ट करना संभव नहीं था।

वे पहली बार अपने मूल समाज से विच्छिन्न होकर नगरीय जीवन में अकेलेपन व कई ऐसी समस्याओं को झेल रहे थे कि वे साहित्य में भी उसी जीवन के चित्र खोजना चाहते थे। इन सब दबावों ने उपन्यास को यथार्थवाद से जोङा और देखते ही देखते वह जटिल समाज के सम्पूर्ण चित्र को पेश करने वाला ’गद्य महाकाव्य’ बन गया।

हिन्दी साहित्य में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति दिखाई दी। 1882 ई. में हिन्दी का प्रथम उपन्यास ’परीक्षागुरु’ प्रकाशित हुआ। यहाँ से प्रेमचंद के आगमन तक हिन्दी उपन्यास रोमांच, काल्पनिकता तथा नैतिक उपदेशों से भरा था। प्रेमचंद ने पहली बार उपन्यास परम्परा को सामाजिक यथार्थ से जोङा। यही कारण है कि कुछ आलोचक तो हिन्दी उपन्यास की शुरूआत प्रेमचंद से ही मानते हैं।

हिन्दी का पहला उपन्यास

हिन्दी उपन्यास की शुरूआत उसी युग में हुई जिसे गद्य के विस्फोट का ’आरंभिक युग’ या ’भारतेन्दु युग’ कहते हैं। इस युग के रचनाकारों ने कई विधाओं का प्रवर्तन किया जिनमें उपन्यास भी एक है।

हिन्दी के पहले उपन्यास के संबंध में विवाद है। एक मत के अनुसार 1882 ई. में लीला श्रीनिवास दास द्वारा रचित ’परीक्षागुरु’ हिन्दी का पहला उपन्यास है। इस उपन्यास में दिल्ली के एक सेठ मदनमोहन की कहानी बताई गई है जो कुसंगति के कारण अपना बहुत सा धन बर्बाद कर देता है और एक मित्र के प्रयासों से इस स्थिति से बाहर निकलता है।

इस रचना का मूल भाव लेखकानुसार यह है कि व्यक्ति को जितनी चादर हो, उतना ही खर्च करना चाहिए। कहीं-कहीं इसमें नई शिक्षा, आधुनिक कृषि, औद्योगीकरण तथा निज भाषा की उन्नति जैसे विचार भी दिखते हैं।

दूसरे मतानुसार, हिन्दी का पहला उपन्यास श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा रचित उपन्यास ’भाग्यवती’ को मानना चाहिए। यह उपन्यास 1887 ई. में प्रकाशित हुआ हालांकि इसका लेखन संभवतः 1877 ई. में हो चुका था। इसमें भारतीय स्त्रियों को गृहस्थ धर्म की शिक्षा दी गई है। लेखक ने स्वयं इसके संबंध में लिखा है- ’’ऐसी पोथी कि जिसके पढ़ने से भारत खण्ड की स्त्रियों को गृहस्थ धर्म की शिक्षा प्राप्त होती है।’’

अब यह माना जाता है कि ’परीक्षागुरु’ ही हिन्दी का पहला उपन्यास है। इस निर्णय के पक्ष में दो तर्क दिए जाते हैं। पहले तर्कानुसार, किसी रचना का काल निर्धारण उसके प्रकाशन वर्ष से ही हो सकता है न कि लेखन वर्ष से, क्योंकि साहित्य वस्तुतः तभी साहित्य बनता है जब वह पाठक तक पहुंचता है।

इसलिए ’परीक्षा-गुरु’ काल की दृष्टि से ’भाग्यवती’ से पहले है। दूसरा तर्क यह है कि ’भाग्यवती’ में आदर्शात्मक और उपदेशात्मक मानसिकता अधिक है, यथार्थवादी मानसिकता नहीं के बराबर नजर आती है। दूसरी और ’परीक्षागुरु’ में भी सुधारवादी मानसिकता मिलती है पर इसके बावजूद इसमें आधुनिक मानसिकता के तत्त्व भी दिखाई पङते हैं।

अतः ’परीक्षागुरु’ ही हिन्दी का पहला उपन्यास माना जा सकता है।

प्रेमचंद पश्चात् युग

प्रेमचंद युग के बाद भारतीय समाज की प्रकृति में तीव्र व व्यापक परिवर्तन हुए जिसके कारण उपन्यासों की दुनिया भी तेजी से बदली। देश को स्वाधीनता मिली किन्तु स्वाधीनता के कुछ दिनों बाद उससे मोहभंग भी होने लगा। नागार्जुन ने तो इस तथाकथत आजादी पर चोट करते हुए यहाँ तक कहा कि – ’’कागज की आजादी मिलती, ले लो दो-दो आने में’। इसके साथ-साथ देश में तीव्र शहरीकरण हुआ और एक पूरी ग्रामीण पीढ़ी शहर पहुँच गई।

महिलाओं ने घर से बाहर समाज के प्रत्येक क्षेत्र में कदम रखा और अधिकारों की मांग की जिससे स्त्री-पुरुष संबंध तेजी से बदलने लगे। कुछ और आगे चलकर मध्यवर्ग की संख्या तेजी से बढ़ी और उपभोक्तावादी संस्कृति देखते ही देखते मीडिया पर सवार होकर देश भर में फैल गई। इन सारे परिवर्तनों से सामाजिक संरचना जटिल होती गई और उपन्यासों के समक्ष इस जटिल यथार्थ को प्रस्तुत करने की चुनौती खङी हो गई।

हिन्दी उपन्यास ने इन सभी परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में समाज के जीवत चित्र प्रस्तुत किए जिन्हें कई वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

(1) मनोवैज्ञानिक उपन्यास:-

मनोविज्ञान का प्रयोग यूँ तो प्रेमचंद ने भी किया था किन्तु उनके बाद मनोविज्ञान के तकनीकी पक्ष का महत्त्व बढ़ा और उसने साहित्य को प्रभावित किया। बीसवीं सदी की शुरूआत में सिग्मंड फ्राॅयड ने थाॅमस एडलर तथा कार्ल युंग के साथ मिलकर ’मनोविश्लेषणवाद’ प्रस्तुत किया। जिसने सारी दुनिया को वैचारिक तौर पर प्रभावित किया। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति के यथार्थ की पहचान उसके चेतन मन से नहीं बल्कि अचेतन व अवचेतन से होती है।

व्यक्ति की सबसे मूल प्रवृत्ति हैं ’लिविडो’ (Livido) अर्थात् ’कामचेतना’ जिससे व्यक्ति का मूल व्यक्तित्व निर्मित होता है। इसके अतिरिक्त, मनोविश्लेषणवाद के समर्थकों ने जीवनेच्छा, इडिपस ग्रंथि, इलेक्ट्रा ग्रंथ इत्यादि सिद्धांतों का भी प्रयोग किया।

मनोवैज्ञानिक उपन्यास मुख्यतः इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर रचे गए। वे व्यक्ति के मन की तहों में झाँककर प्रचलित नैतिक सिद्धांतों की समीक्षा करते हैं। इन उपन्यासों में जो विशेष तत्त्व देखने को मिलते हैं, वे इस प्रकार हैं-

1. इनमें घटनाएँ बेहद विरल होती हैं क्योंकि इनमें घटनाओं से ज्यादा महत्त्व, चिंतन, मनन, मंथन और विश्लेषण का है। उदाहरण के लिए, ’शेखरः एक जीवनी’ में घटनाओं की संख्या बेहद कम है जबकि विश्लेषण कई-कई पृष्ठों तक फैला हुआ है।

2. इनमें पात्रों की संख्या अत्यंत सीमित होती है किन्तु पात्र के आंतरिक व्यक्तित्व का उद्घाटन अत्यंत सूक्ष्म और बहुआयामी तरीके से होता है।

3. इनमें बहिर्जगत के स्थान पर अंतर्जगत कथावस्तु के केन्द्र में स्थापित हो जाता है।

4. इनमें भाषा अत्यंत प्रतीकात्मक हो जाती है क्योंकि सीधी-सपाट भाषा में मन की गहराइयों को व्यक्त करना संभव नहीं होता। उदाहरण के लिए, त्यागपत्र की मृणाल कहती हैं- ’देख, चिङिया कितनी ऊँची उङ जाती है। मैं चिङिया होना चाहती हूँ।’

5. ये उपन्यास प्रचलित नैतिक व्यवस्था की विकृतियों को प्रदर्शित करते हैं और दावा करते हैं कि व्यक्ति के नैतिक होने का निर्णय उसके काम संबंधों के आधार पर नहीं होना चाहिए। ’शेखरः एक जीवनी में शेखर व शशि का प्रेम ऐसी ही नैतिक वर्जनाओं को तोङता है।

मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में विभिन्न लेखक कुछ वैविध्य के साथ नजर आते हैं। जैनेन्द्र ने फ्राॅयड को गाँधी से मिला दिया है तो अज्ञेय ने फ्राॅयड के साथ टी.एस. इलियट, डी.एच. लाॅरिंस तथा सात्र्र को घुला-मिला दिया है। इलाचन्द जोशी और डाॅ. देवराज के यहाँ मनोविश्लेषणवाद अपने मूल रूप में दिखता है जोशी जी के उपन्यासों में सिद्धांत-पक्ष कुछ हावी हो गया है।

मनोवैज्ञानिक उपन्यासों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

जैनेन्द्र – त्यागपत्र, सुनीता, कल्याणी

अज्ञेय – शेखर एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी

इलाचन्द्र जोशी – जिप्सी, जहाज का पंछी, सन्यासी

डाॅ. देवराज – अजय की डायरी

(2) मार्क्सवादी, समाजवादी या प्रगतिवादी उपन्यास-

समाजवादी या प्रगतिवादी उपन्यास मार्क्सवादी विचारधारा को आधार बनाकर लिखे गए हैं। माक्र्स का मानना था कि किसी भी समाज का बुनियादी ढांचा उसकी अर्थव्यवस्था या उत्पादन प्रणाली में निहित होता है और उसी पर ऊपर ढाँचे जैसे राजनीति, कला, संस्कृति आदि टिके होते हैं। हर समाज दो वर्गों-शोषक व शोषित में बंटा होता है। शोषक वर्ग उत्पादन के साधनों पर कब्जा करके निम्न वर्ग पर शासन करता है।

इस अन्याय के विरूद्ध हिंसक क्रांति जरूरी है और साहित्य की भूमिका क्रांति को संभव बनाने में ही हो सकती है। इस दृष्टिकोण को ’समाजवादी यथार्थवाद’ कहा जाता है। सम्पूर्ण प्रगतिवादी साहित्य इसी दृष्टिकोण पर आधारित है।

प्रेमचंद पर अंतिम समय में मार्क्सवाद का थोङा बहुत प्रभाव दिखता है, पर वास्तविक अर्थों में समाजवादी उपन्यास प्रेमचन्दोत्तर युग में लिखे गए। यशपाल इस धारा के केन्द्रीय लेखक हैं व नागार्जुन, भैरव प्रसाद गुप्त तथा रांगेय राघव अन्य प्रमुख रचनाकार हैं। इनके उपन्यासों में

मुख्य रूप से निम्नलिखित विशेषताएँ दिखती हैं-

1. इन उपन्यासों में आर्थिक समस्याओं विशेषतः गरीबी व शोषण को कथावस्तु का आधार बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त, धर्म व सांप्रदायिकता जैसी मिथ्या चेतनाओं पर भी चोट की जाती है।

2. इन उपन्यासों में नायक मजदूर वर्ग या किसान वर्ग से होता है। यहाँ नायकोचित औदात्य व गरिमा जैसी पारंपरिक धारणाएँ खंडित हो जाती है।

3. इनमें शोषणतंत्र की पहचान व इसके विरुद्ध वर्ग संघर्ष की प्रस्तावना की जाती है।

4. इन उपन्यासों की भाषा-शैली सामान्यतः सरल होती है क्योंकि ये निम्नवर्ग को संघर्ष हेतु प्रेरित करने के उद्देश्य से रचे जाते हैं।

समाजवादी उपन्यासों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

यशपाल – पार्टी काॅमरेड, दादा काॅमरेड, झूठा सच, दिव्या।

नागार्जुन – बाबा बटेसरनाथ, वरण के बेटे।

भैरवप्रसाद गुप्त – मशाल, गंगा मैया।

रांगेय राघव – घरौंदा, विषाद-मठ।

समाजवादी उपन्यासों की सबसे बङी सीमा यह है कि इनमें कई बार सिद्धांत पक्ष हावी हो जाता है और पाठक कथानक से सहज संबंध बना नहीं पाता। जिन उपन्यासों में विचारधारा का यांत्रिक प्रयोग नहीं हुआ है, वे काफी बेहतर बन पङे हैं, जैसे यशपाल का ’दिव्या’।

(3) सामाजिक यथार्थ के उपन्यास –

जिस उपन्यास धारा को प्रेमचंद ने प्रवर्तित किया था, वही आगे चलकर नई-नई सामाजिक समस्याओं का वर्णन तथा विश्लेषण करती रही। इसी धारा को ’सामाजिक यथार्थवादी धारा’ कहा जाता है। इस धारा के लेखक किसी भी विचारधारा के मोह से बचते हुए अपने स्वतंत्र नजरिये से समाज की समस्याओं का सूक्ष्म अंकन करते हैं।

1947 ई. से आज तक का समाज जिस प्रकार तेजी से बदलता रहा है, वैसे ही इस धारा की प्रवृत्तियाँ भी बदली है। प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-

1. 1947 ई. के तुरंत बाद राष्ट्रीय चेतना व आजादी का मोह इतना अधिक है कि लेखक देश का सुंदर भविष्य बनाने के लिए बेचैन हैं। यह प्रवृत्ति सबसे स्पष्ट रूप में भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ’भूले बिसरे चित्र’ में दिखती है। उन्हीं का उपन्यास ’टेढ़े-मेढे़ रास्ते’ भी कुछ-कुछ ऐसा ही है।

2. 1955 ई. के बाद आजादी से मोहभंग की स्थिति पैदा हुई जो पूरे छठे दशक में मुखर रही। इस काल का प्रतिनिधि उपन्यास नरेश मेहता द्वारा रचित ’यह पथ बन्धु था’ है जिसमें आजादी के संघर्ष के निरर्थक चले जाने की पीङा दिखती है।

3. 1970 ई. के आसपास मोह-भंग की पीङा भी समाप्त होने लगी और उदासीनता, निष्क्रियता, पैदा हुई। इस समय के लेखक क्रांति, विद्रोह और विचारधाराओं में आस्था खो चुके हैं। किन्तु उनके भीतर पीङा इतनी ज्यादा है कि बिखरते हुए समाज पर तीखा व्यंग्य किए बिना उन्हें संतोष नहीं मिलता है। इस प्रवृत्ति का सबसे प्रमुख उदाहरण है- श्रीलाल शुक्ल द्वारा रचित ’राग-दरबारी’।

4. 1970 के दशक के बाद सांप्रदायिकता भारतीय समाज में एक बङी समस्या बनकर उभरी। इस प्रवृत्ति को सबसे बेहतर अभिव्यक्ति भीष्म साहनी ने ’तमस’ में दी।

5. 60 के दशक में ही तीव्र नगरीकरण और मध्यवर्ग के उभार ने शहरों में ऐसे वर्ग को जन्म दिया जो सामाजिक जीवन से वंचित होकर अकेलेपन की पीङा झेल रहा था जहाँ प्रेम का स्थान उपयोगितवादी संबंधों ने ले लिया था और व्यर्थताबोध गहरा हो गया था। इस प्रवृत्ति पर मुख्यतः राजेन्द्र यादव जैसे लेखकों ने लिखा। उनका उपन्यास की धारा आज भी कई अन्य धाराओं में पर्यवसित होकर सक्रिय बनी हुई है जैसे महिला लेखन की धारा, महानगरीय उपन्यासों की धारा आदि। इस वर्ग के उपन्यासों की सबसे बङी विशेषता यह है कि ये न तो प्रगतिवादियों की तरह समाज को अधिक महत्त्व देती है और न ही मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों की तरह व्यक्ति को। ये व्यक्ति व समाज को जोङकर देखते हैं। ऐसा सूक्ष्म विश्लेषण मुख्य रूप से अमृतलाल नागर के उपन्यास ’बूंद व समुद्र’ में दिखता है जिसमें ’बूंद’ व्यक्ति को व ’समुद्र’ समाज को दर्शाता है।

(4) ऐतिहासिक पौराणिक उपन्यास –

ऐतिहासिक उपन्यास प्रेमचंद पूर्व युग में भी थे किन्तु उनमें इतिहास बोध कमजोर किस्म का था। आजादी के बाद कुछ उपन्यासकारों ने अंग्रेजों के साम्राज्यवादी इतिहास बोध को खारिज करते हुए नई इतिहास दृष्टि के साथ कुछ उपन्यास लिखे जो इस परम्परा में शामिल हैं। इनका एक उद्देश्य यह भी था कि इतिहास व पुराणों के कुछ प्रसंगों के माध्यम से वर्तमान समाज को प्रेरणा व ऊर्जा दे सकें।

ऐसे मुख्य उपन्यास हैं-

भगवतीचरण वर्मा – चित्रलेखा

चतुरसेन शास्त्री – वैशाली की नगरवधू

वृन्दावनलाल वर्मा – झाँसी की रानी

रांगेय राघव – मुर्दों का टीला

यशपाल – दिव्या

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